Wednesday, September 7, 2016

फिर क्यों

   तुम सतरूपा, सुरूप हो, जगतरुपा की रूप हो,
सहनशीलता में माता, जानकी का स्वरुप हो
तुम छाँव हो, तुम धुप हो
तुम्ही तो रौद्रमुखी की रूप हो,
फिर क्यों तुम नोची जाती हो खसोटी जाती हो
दानवों की थाली में परोसी जाती हो |
तुम दर्पण हो, तुम प्यारा चेहरा हो
खुशियों का तुम डेरा हो
जिंदगी बिताने का एक नया सवेरा हो
तुम शहर हो, तुम गाँव हो
तुम ही तो आधुनिकता का प्रारूप हो
फिर क्यों तुम नोची जाती हो खसोटी जाती हो
दानवों की थाली में परोसी जाती हो |
तुम कमाल हो, तुम लाजवाब हो,
अपने आप में तुम बेमिशाल हो,
हर परिस्थिति से निपटने का, तुम एक मिशाल हो,
तुम एक अच्छा हाल हो, तो तुम एक बूरा काल भी हो,
तुम असत्य पर विक्राल हो, महाकाल हो,
फिर क्यों तुम नोची जाती हो खसोटी जाती हो
दानवों की थाली में परोसी जाती हो |
तुम हँसाती हो, तुम जगाती हो,
थकने पर तुम्ही तो सुलाती हो,
तकरीबन इस जहाँ में सबको अच्छा ,
तुम्ही बनाती हो,
तुम दिन हो, तुम रात हो,
तुम भयंकरता की टाप हो,
फिर क्यों तुम नोची जाती हो खसोटी जाती हो
दानवों की थाली में परोसी जाती हो |
                                                 
-राजीव रंजन




   

No comments:

Post a Comment